प्रबोधसुधाकर

यह स्थूल शरीर से शुरू होकर इंद्रियों, फिर मन, वैराग्य, आत्मज्ञान, माया, सूक्ष्म और कारण शरीर, अद्वैतवाद का अनुभव, आत्मज्ञान, भक्ति, ध्यान, सगुण ब्रह्म और निर्गुण ब्रह्म के साथ एकाकार होना और अंत में ईश्वरीय कृपा से लीन होना आदि विषयों पर आधारित है।

देहनिन्दा

नित्य, आनन्दस्वरूप, एकरस, सचित्स्वरूप, स्वय॑प्रकाश, पुरुषोत्तम, अजन्मा और ईश्वर, यदुनाथ श्रीकृष्णचंद्र की वन्दना करता हूँ।

जिनका साक्षात्‌ (विधि-मुख से) वर्णन करने में श्रुति भी मूक के समान मौन हो जाती हैं, वे (भगवान्‌) क्‍या हम मनुष्यों की वाणी के विषय हो सकते हैं।

यद्यपि भगवान्‌ ऐसे हैं तथापि आध्यात्मिक शास्त्रों के सारों से तथा हरि-चिन्तन और कीर्तनाभ्यासादि से उनका कथन किया ही जाता है।

सम्पादन किये हुए अभ्यास, ज्ञान और भक्ति आदि नाना उपायों से भी बिना वैराग्य के मनुष्य को मुक्ति का अधिकार नहीं होता।

वैराग्य, आत्मज्ञान और भक्ति - मुक्ति के ये तीन साधन बतलाये गये हैं, इनमें तृष्णाहीनतारूप वैराग्य ही प्रथम है।

वह वितृष्णता समस्त देहधारियों के भीतर अहंता और ममता से छिपी हुई है। उनमें से अहंता देह में होती है और ममता स्नी-धन आदि विषयों में हुआ करती है।

"यह देह किससे बना है और इसका विषयों से क्‍या सम्बन्ध है" ऐसा विचार करते रहने से अहंता और ममता निवृत्त हो जाती हैं।

स्त्री और पुरुष के संयोग से रज और वीर्य का मेल होने पर जीव अपने कर्मानुसार गर्भ में प्रवेश करके धीरे-धीरे देह धारण करता है।

फिर नौ मास तक मल-मूत्र और कफादि से पूर्ण माता की कोखरूप बड़ी भारी कन्दरा में पड़ा हुआ यह जीब जठरानल की ज्वालाओं से जला करता है।

प्रसव के समय यदि देववश बालक टेढ़ा हो जाता है तो उसे शस्त्रो से काट-काटकर अति बलपूर्वक बाहर निकाला जाता है।

अथवा यदि ठीक-ठीक प्रसव भी हुआ तो जिस समय वह प्रबल प्रसूतिवायु के द्वारा संकुृचित योनिछिद्र से बाहर निकाला जाता हैं उस समय का कलेश भी अकथनीय होता है।

जन्म के अनन्तर भी आधि, व्याधि, वियोग, सवजनो की विपत्ति, कलह और बहुत समय तक रहने वाली दरिद्रता आदि से जितना दुःख उठाना पड़ता हैं क्‍या उसका वर्णन किया जा सकता है।

कर्मबन्धन से बँधा हुआ जीव मनुष्य, पशु, पक्षी और तिर्यगादि चौरासी लाख योनियो में भ्रमता हुआ नाना प्रकार की विपत्तियाँ झेलता है।

उन सब योनियों में मनुष्य-देह सर्वश्रेष्ठ है; उस नरदेह में भी उच्च कुल में जन्म, अपने कुटुम्ब के आचार-विचार तथा श्रुतिज्ञान को पाकर भी

जिनको आत्मा और अनात्मा का विवेक तथा देह की विनाशशीलता का ज्ञान नहीं हुआ वे भले ही बड़े बुद्धिमान्‌ हों, ऐसी स्थिति में उनकी आयु व्यर्थ ही जाती है।

क्षण और पलभर की आयु भी करोड़ों सुवर्ण-मुद्राओं के बदले में कभी नहीं मिल सकती। यदि ऐसी अमूल्य आयु व्यर्थ ही चली गयी तो इससे बढ़कर और क्या हानि होगी?

नर-देह के नष्ट हो जाने पर यदि पशु आदि की योनि मिली तो उसमें तो भलिभांती अपने शरीर की भी सुधि नहीं रहती, परमार्थ की तो बात ही क्‍या है?

हा! वे क्षुधाक्षीण और थके होने पर भी निरन्तर बोझा ढोने वाले बैल, घोड़े, गधे, हाथी और भैंसे अपना कष्ट कुछ भी नहीं कह सकते।

यह शरीर रुधिर, त्रिधातु (वात, पित्त, कफ), मज्जा, मेद, मांस और हृड्डियों का समूह है; बाहर से यह त्वचा से मँदा हुआ है इसलिये इसे कोए भी नहीं खाते।

नासिका से अथवा मुख से कफ को और गुदा से मल को त्याग करते समय मनुष्य स्वयं भी घृणा करता है तथापि इन्हें अपने शररीर के भीतर भरे हुए नहीं जानता।

मार्ग में पड़ी हुई हड्डी को देखकर वह उससे छू जाने के डर से दुसरे मार्ग से निकल जाता है, परन्तु सब ओर हजारों हृड्डियो से भरे हुए अपने शरीर कों नहीं देखता।

नख से लेकर शिखापर्यन्त यह सारा शरीर दुर्गन्ध से भरा हुआ है, फिर भी मनुष्य बाहर से इस पर अगरु, चन्दन और कपूर आदि का लेप करता है।

मूढ़ पुरुष देह के स्वभाविक दोषों को यत्नपूर्वक छिपाता है, और औपाधिक (ऊपरी) गुणों को प्रकट करता हुआ इसकी प्रशंसा करता है।

शरीर में यदि थोड़-सा घाव हो जाय और उसको तीन दिन भी न धोया जाय तो दुर्गन्ध के कारण उसमें बहुत-से कीड़े पड़ जाते हैं।

देखो, जो शरीर अति सुशोभित फूलों की सेज पर सुखपूर्वक सोया हुआ था वह अब रस्सी और काठ से जकड़ा जाकर अग्नि में फ़ैंका जा रहा है।

जिसे सिंहासन पर विराजमान देखकर लोग आनन्दित होते थे उसी पुरुष को आज काल के गाल में पड़ा देखकर वे नेत्र मूंद लेते हैं।

ऐसा महामलिन देह जिसकी सत्ता से चलता है उस परमेश्वर को भुलाकर इस अनित्य और अपवित्र देह में लोग 'अहँबुद्धि' करते हैं।

कहाँ तो सत-चित-स्वरूप आत्मा और कहाँ अस्थि, मांस और रुधिर आदि का बना हुआ यह अति घृणित देह? ऐसा विचारकर जो बुद्धिमान्‌ लज्जित होता है, वह दूसरों के देहों को क्‍या समझेगा? (उनसे अपना सम्बन्ध क्यों जोड़ेगा?)

Krishjan
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