एक बार शाकल के द्वारा पूछने पर कि सर्वप्रथम क्या उत्पन हुआ? पैप्पलाद ने उत्तर देते हुए कहा - सर्वप्रथम 'सद्योजात' नामक ब्रह्म का आविर्भाव हुआ। शाकल ने पूछा - इसके अतिरिक्त क्या और भी कोई अन्य भेद है? पैप्पलाद जी ने कहा - 'हाँ, 'अघोर' है। शाकल ने फिर प्रश्न किया कि क्या और भी अन्य भेद है? पैप्पलाद ने उत्तर दिया 'वामदेव। शाकल ने पुनः पूछा 'क्या यही भेद हैं?' पैप्पलाद जी ने कहा 'नहीं, 'तत्पुरुष' नामक एक और भी भेद है। शाकल ने पुनः प्रश्न किया अच्छा तो क्या यही चार भेद हैं? पैप्पलाद जी ने कहा नहीं, सभी देवों को प्रेरित करने वाला 'ईशान' नामक एक भेद और है। यह सभी भूत, भविष्यत् एवं समस्त देवयोनियों का शासक है।
इसके कितने वर्ण हैं? कितने भेद (प्रकार) हैं? तथा कितनी शक्तियाँ हैं? ये समस्त बातें बड़ी गोपनीय हैं (अतः अनधिकारियों से छिपाकर रखनी चाहिए)।
महारुद्र उन महादेव को नमस्कार है।
भगवान् महेश ने पैप्पलाद जी को ये सभी उपदेश प्रदान किये।
हे शाकल! इस लोक में अति गोपनीय बातों में भी जो अति गूढ़ है, उसे सुनो। वह है 'सद्योजात' नामक ब्रह्म। सभी तरह की अभीष्ट सिद्धियों को देने वाली मही, पूषा, रमा, ब्रह्मा, त्रिवृत् (सत्, रज, तम), अकारादि स्वर, त्र्ऋग्वेद, गार्हपत्य (अग्रि), विविध मंत्र (नमः शिवाय आदि) सात स्वर (स.रे.ग.म.प.ध.नि), पीला वर्ण (रंग) तथा क्रिया नामक शक्ति आदि जिसके अनेक स्वरूप हैं।
जल, चन्द्र, गौरी, यजुर्वेद, नीरदाभ (मेघ की आभा वाले), स्वर (उकार), स्रिग्ध, दक्षिणाग्नि आदि ये सभी अघोर के स्वरूप बतलाये गये हैं। ये तथा इनके अतिरिक्त पचास (असे लेकर क्ष तक जो) वर्ण हैं, उनसे युक्त स्थिति, इच्छा तथा क्रिया शक्ति से युक्त (अपनी विकल्पित) शक्ति के रक्षण से युक्त जो अघोर का स्वरूप है, वह सभी तरह के पापों के समूह का शमन करने वाला, सभी दुष्टों का विनाश करने वाला तथा सभी तरह के ऐश्वर्य के फल को प्रदान करने वाला है।
'वामदेव' महान् ज्ञान प्रदायक एवं तेजस्वी अग्नि के स्वरूप, विद्या के आलोक से आलोकित, करोड़ों सूर्यों के सदृश तेजोमय तथा सर्वदा आनन्द स्वरूप हैं। अष्टगान (सामवेद के कहे गये सात गान एवं एक भरत शास्त्र निष्पन्न गीति) से समन्वित मन्द स्वर (आ, आ, आम्) के अधीन तथा सर्वोत्तम आहवनीय (अग्रिसदृश), ज्ञान एवं संहार शक्ति से समन्वित उनका (वामदेव का) स्वरूप है। वह शुक्ल वर्ण, तमोगुण युक्त तथा स्वयं ही पूर्णज्ञाता, (जाग्रत् आंदि) तीनों धामों के नियामक, तीनों धामों (विश्व, तैजस, प्राज्ञ) से युक्त, सभी को सौभाग्य प्रदान करने वाले, मनुष्यों के सभी कर्मों के फल प्रदाता तथा (अ, क, च, ट,त, प, य, श) इन आठ अक्षरों (अथवा आठ क्षरित न होने वाले तत्त्वों अथवा ॐनमो महादेवाय के आठ अक्षरों तथा अष्टदल (पंखुड़ियों) से युक्त कमल अर्थात् हृदय रूपी कमल में निवास करने वाले हैं।
जो यह 'तत्पुरुष' हमने कहा है, वह वायुमण्डल से आपूरित पाँच अग्नियों से संयुक्त होकर मंत्र शक्ति का नियामक अर्थात् नियमन करने वाला है। वे स्वर एवं व्यञ्जन के रूप में पचास संख्या से प्रसिद्ध, अथर्ववेद के स्वरूप वाले, अनन्त कोटि गणों के अध्यक्ष तथा अखण्ड अर्थात् सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड रूप शरीर वाले हैं। उन (तत्पुरुष) का वर्ण लाल है, वे समस्त इच्छाओं को पूर्ण करने वाले तथा सब प्रकार की आधि-व्याधियों (मानसिक एवं शारीरिक रोगों) की अनुपम औषधि हैं। ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, पालन एवं संहार के एक मात्र कारण हैं और समस्त शक्तियों को धारण करने में समर्थ हैं। इसके अतिरिक्त वे (जाग्रत्, स्वप्न एवं सुषुप्ति) तीनों अवस्थाओं से परे तुरीयावस्था (चतुर्थ अवस्था) स्वरूप एवं ब्रह्म की संज्ञा से युक्त हैं। वे (ब्रह्म) ही सभी को प्रादुर्भूत करने वाले, ब्रह्मा एवं विष्णु आदि के द्वारा सर्वदा सेवित होने वाले हैं।
'ईशान' को परमात्मतत्त्व के रूप में प्रेरणा प्रदान करने वाला जानना चाहिए। (वे) बुद्धि के साक्षीरूप, आकाश स्वरूप (सर्वत्र व्यापक), अव्यक्त एवं ॐकार के स्वर से (ध्वनि से) विभूषित हैं। वे समस्त देवों के स्वरूप वाले, शान्त, शान्ति से भी परे अर्थात् अत्यन्त शान्ति से सम्पन्न, स्वरों से परे (अर्थात् स्वरों से जिनका ज्ञान सम्भव नहीं), 'अकार' आदि स्वरों के जो अधिष्ठाता स्वरूप हैं तथा जो आकाशमय (व्यापक) शरीर से युक्त हैं। (वे) सृष्टि आदि पाँच (सृष्टि, स्थिति, ध्वंस, विधान और अनुग्रह) कृत्यों के नियन्ता एवं सर्वव्यापक विराट् पंच ब्रह्मस्वरूप हैं। वे (ईशान) पंचब्रह्म का उपसंहार (निर्वाण) करके अपनी आत्मा में प्रतिष्ठित होकर अपनी माया के वैभव-प्रभाव से सबका संहार करके अपनी ही आत्मा में प्रतिष्ठित रहने वाले हैं। वे (ईशान) पंच ब्रह्म से परे रहकर स्वयं अपने ही तेज से प्रकाशित हैं और आदि, मध्य एवं अन्त में भी किसी अन्य कारण से भासित नहीं होते, वरन् (वह) स्वयं प्रकाश स्वरूप एवं स्वयम्भू हैं।
भगवान् शम्भु की माया से मोहित देवगण, सम्पूर्ण जगत् के गुरु एवं समस्त कारणों के कारण उन देवाधिदेव महादेव को नहीं जानते। सम्पूर्ण विश्व को प्रकाश देने वाले उन परात्पर विराट् पुरुष का रूप सामान्य दृष्टि से नहीं देखा जा सकता। जिसके द्वारा यह विश्व प्रकाशित होता है, जिसमें विलय को प्राप्त हो जाता है, ऐसा वह परम अविनाशी ब्रह्म शान्त स्वरूप है। वही अद्वितीय परमपद स्वरूप मैं स्वयं हूँ।
'सद्योजात' आदि यही पंचब्रह्म हैं, इस चराचर जगत् में जो भी दृष्टिगोचर हो रहा है अथवा सुनाई पड़ रहा है, वह सभी कुछ पंच ब्रह्मात्मक ही है। पाँच रूपों में प्रतिष्ठित वह (सद्योजात) ब्रह्मकार्य कहा गया है। इस ब्रह्मकार्य को जान करके 'ईशान' को प्राप्त किया जाता है। यदि विद्वान् मनुष्य उन पंच ब्रह्मात्मक को अपनी आत्मा में विलीन करके (अर्थात् मान कर) 'सोऽहमस्मि' अर्थात् 'मैं यही पंचब्रह्म हूँ, स्वयं उन्हीं का रूप हूँ।' इस प्रकार समझे, तो (वह) ब्रह्मामृत का रसास्वादन करने वाला हो जाता है। अतः इस प्रकार से जो ब्रह्म के स्वरूप को जान लेता है, वह मुक्ति को प्रात कर लेता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है।
पंचाक्षरमय उस परब्रह्म स्वरूप भगवान् शम्भु को जान करके प्रारम्भ में 'नकार' और अन्त में 'यकार' है जिसके, ऐसे पंचाक्षर मंत्र (नमः शिवाय) को जपना चाहिए। समस्त वस्तुओं को पंचात्मक ब्रह्म के रूप में जानकर सर्वत्र पंचब्रह्म तत्त्व का ही दर्शन करना चाहिए। जो भी व्यक्ति भक्ति-भावनापूर्वक पंचब्रह्मात्मक विद्या को पढ़ता है, वह स्वयं ही पंचब्रह्म का साकार रूप होकर पंचब्रह्म की समीपता को प्राप्त कर लेता है।
इस प्रकार इस ज्ञान को महादेव जी 'गालव' मुनि को कृपापूर्वक बताते हुए वहीं आत्मलीन हो गए।
हे शाकल! जिसके श्रवण मात्र से ही अश्रुत (अनसुना) श्रुत (ज्ञात) हो जाता है। जाना हुआ, न जाना हुआ सभी प्रकार का ज्ञान प्राप्त हो जाता है और जिन सिद्धान्तों का ज्ञान न हो, वे सभी स्वयं ही ज्ञात हो जाते हैं। हे गौतम! जिस प्रकार से मिट्टी के एक ही पिण्ड से अभिन्न समस्त वस्तुओं का पूर्ण ज्ञान हो जाता है; क्योंकि कार्य-कारण से अभिन्न होता है, वैसे ही पंचब्रह्म के ज्ञान द्वारा समस्त वस्तुओं का ज्ञान हो जाता है।
जिस प्रकार एक लोहमणि के द्वारा समस्त लोहतत्त्व ज्ञात हो जाते हैं, उसी प्रकार नाखून को काटने की छुरी से सभी लोहे के बने अस्त्रों की जानकारी प्राप्त हो जाती है; यह स्वाभाविक है कि उससे अपृथक् जितनी भी वस्तुएँ होंगी, वे सभी तदनुरूप होंगी; क्योंकि कारण से अभिन्न जो भी कार्य है, वह कारण रूप ही होता है।
यदि किसी भी वस्तु को (कार्य को) तद्रूप अर्थात् कारण के अनुरूप मान लिया जाए, तो वह सदा सत्य है। जब उसे भिन्न (तद्रूप से भिन्न) कहेंगे, तो वह मिथ्या कथन होगा; क्योंकि सभी कार्यों का कारण तो एक ही है। वह न तो भिन्न है और न ही उभयात्मक है। यह जो सभी जगहों पर भेद की प्रतीति होती है, उसका कारण धर्म के निरूपण का अभाव ही है। अतः कारण तो वस्तुतः एक ही है, वह दूसरा (भिन्न) नहीं है। इसलिए इस चराचर विश्व का कारण शुद्ध चैतन्यरूप अद्वैत ही है।
हे मुने! इस अविनाशी ब्रह्म के आश्रयस्थल शरीर में जो दहर नामक निवास स्थल (हृदय में) है, जिसे पुण्डरीक (कमल) भी कहते हैं, उसी में दहराकाश स्थित है। उसी में ही मोक्ष के इच्छुक साधकों को सत्-चित् एवं आनन्दस्वरूप उस शिव को ढूँढ़ना चाहिए। यह शिवं सदैव हृदय कमल में ही प्रतिष्ठित रहता है एवं निर्विशेष (सामान्य) दृष्टि से सभी का साक्षीभूत है। इस कारण से हृदय को शिवस्वरूप कहकर इस (हृदय) को ही संसार का मोचक अर्थात् संसार से मुक्त करने वाला कहा गया है।