अध्यात्मोपनिषद

यह उपनिषद् शुक्ल यजुर्वेद से सम्बद्ध है। इसमें अपने नाम के अनुरूप आत्म तत्त्व के साक्षात्कार का विषय प्रतिपादित है। गुरु-अनुशासन का अनुगमन करके शिष्य को ऐसी अवस्था प्राप्त होने पर उसका क्या प्रतिफल प्राप्त होता है, इसका वर्णन करते हुए इस औपनिषदीय ज्ञान के हस्तान्तरण की परम्परा बतायी गयी है।

'ॐ' रूप में जिसे अभिव्यक्त किया जाता है, वह परब्रह्म स्वयं में सब प्रकार से पूर्ण है और यह सृष्टि भी स्वयं में पूर्ण है। उस पूर्ण तत्त्व में से इस पूर्ण विश्व की उत्पत्ति हुई है। उस पूर्ण में से यह पूर्ण निकाल लेने पर भी वह शेष भी पूर्ण हो रहता है। आधिदैविक, आधिभौतिक एवं आध्यात्मिक ताप - सन्ताप शान्त हों।

शरीर के अन्दर स्थित हृदय रूपी गुहा में एक (अद्वितीय), अज (कभी जन्म न लेने वाला), नित्य (शाश्वत) निवास करता है। पृथिवी इसका शरीर है, यह पृथिवी के अन्दर रहता है; किन्तु पृथिवी इस (अज) को नहीं जानती। जल जिसका शरीर है, जो जल में निवास करता है, पर जल को उसका ज्ञान नहीं है। तेज जिसका शरीर है, जो तेज के अन्तर्गत संचरित होता है, पर तेज जिसे (जिसका संचरित होना) नहीं जानता। वायु जिसका शरीर है, जो बागु के अन्दर संचरित होता है, पर वायु जिसे नहीं जानता। आकाश जिसका शरीर है, जो आकाश में संचरित होता है, पर आकाश जिसे नहीं जानता। मन जिसका शरीर है, जो मन में संचरित होता है, पर मन जिसे नहीं जानता। बुद्धि जिसका शरीर है, जो बुद्धि में निवास करता है, पर बुद्धि जिसे जानती नहीं। जिसका शरीर अहंकार है, जो अहंकार में निवास करता है, पर अहंकार जिसे जानता नहीं। चित्त जिसका शरीर है, जो चित्त में संचरित होता है, पर चित्त जिसे जानता नहीं। अव्यक्त जिसका शरीर है, जो अव्यक्त में संचरित होता है, पर अव्यक्त जिसे जानता नहीं। अक्षर जिसका शरीर है, जो अक्षर में संचरित होता है, पर अक्षर जिसे जानता नहीं। जिसका शरीर मृत्यु है, जो मृत्यु में संचरित होता है, पर मृत्यु जिसे जानती नहीं-वही सर्वभूतों में स्थित उनका अन्तरात्मा है, वह निष्पाप है और वही एक दिव्य देवनारायण है। शरीर और इन्द्रियादि अनात्म विषय हैं। इनके विषय में 'मैं और मेरा का भाव' अध्यास (भ्रान्ति) मात्र है, इसलिए विद्वान् को चाहिए कि वह ब्रह्मनिष्ठ (ब्रह्मज्ञान) के द्वारा इस अध्यास (भ्रान्ति) को दूर करे।

अपने को ही बुद्धि और उसकी वृत्ति का साक्षी मानकर स्वयं को प्रत्यगात्मा समझे। वह मैं ही हूँ। इस 'सोऽहम्' वृत्ति से अपने अतिरिक्त समस्त पदार्थों से आत्म बुद्धि का परित्याग कर दे।

लोकानुवर्तन (संसार का अनुसरण) छोड़कर देहानुवर्तन भी त्याग देना चाहिए। देहानुवर्तन के पश्चात् शास्त्रानुवर्तन भी त्याग दे, इसके बाद आत्म-अध्यास (आत्म-भ्रान्ति) का भी परित्याग कर देना चाहिए। (मनुष्य प्रारम्भ में लोक, देह, शास्त्र आदि के माध्यम से सत्यानुगमन का प्रयास करता है। जैसे-जैसे सत्य का स्वरूप समझ में आता रहता है, वैसे-वैसे स्थूल आधारों का सहारा लेने की आवश्यकता घटती जाती है। इस तथ्य को न समझने वाले लोग मर्यादाएं तोड़ने लगते हैं। ऋषि का भाव मर्यादा त्याग नहीं, स्थूल आधारों से ऊपर उठने का है)

सदा अपने आत्म स्वरूप में स्थित रहकर युक्ति, श्रुति (श्रवण) और स्वानुभूति द्वारा सबको अपना ही आत्म स्वरूप जानकर योगी पुरुष का मन (संकीर्ण भाव) विनष्ट होता है। (मन जब तक संकीर्णता से ग्रस्त रहता है, तब तक मेरे तेरे के बचकाने भाव आते हैं। व्यक्तिगत संकीर्णता से योगी का मन मुक्त हो जाता है, वह समष्टि मन का अंग बन जाता है)

निद्रा, लोकवार्ता, शब्दादि विषयों तथा आत्म विस्मृति का कभी अवसर न आने देकर आत्मा में आत्मा का चिन्तन करना चाहिए।

माता और पिता के मल (मैल) से उत्पन्न हुए इस शरीर को, जिसमें मल और मांस भरा है, इसे चाण्डाल के समान दूर करके (काया के साथ स्व के बोध को त्यागकर) ब्रह्मरूप होकर कृतार्थ हो।

हे मुने! महाकाश में घटाकाश के समान परमात्मा में आत्मा को विलीन (एकरूप) करके अखण्ड भाव से सदैव शान्त रहो।

स्वप्रकाशित, स्वयंभू और अधिष्ठान (ब्रह्म) रूप होकर ब्रह्माण्ड और पिण्डाण्ड का भी विष्ठा पात्र के समान परित्याग (उसके साथ स्वानुभूति का त्याग) कर देना चाहिए।

शरीर के ऊपर आरूढ़ अहं बुद्धि को सदानन्द और चित स्वरूप आत्मा में लगाकर लिङ्ग (स्वज्ञान चिह्न) को छोड़कर सर्वदा केवल आत्मरूप हो (जाओ)।

हे निष्पाप! जिस प्रकार (छोटे से, किन्तु स्वच्छ) दर्पण में (विशाल) पुर (नगर) दिखाई देता है, उसी प्रकार अपने को 'मैं ब्रह्म हूँ.' ऐसा जानकर कृतार्थ हो (जाये)।

अहंकार से मुक्त हुआ पुरुष आत्मस्वरूप को प्राप्त करता है। वह चन्द्रमा के समान विमल होकर पूर्ण सदानन्द और स्वप्रकाश बनता है।

(सांसारिक) क्रियानाश से चिन्ता विनष्ट होती है और चिन्तानाश से वासना का क्षय होता है। वासना का विनष्ट हो जाना मोक्ष है और इसे ही जीवन्मुक्ति भी कहते हैं।

जो सर्वत्र सब तरफ सभी को मात्र 'ब्रह्म' रूप में देखता है और जिसकी सद्भावना दृढ़ हो गई है, उसकी वासना का लय हो जाता है अर्थात् वासना विनष्ट हो जाती है।

ब्रह्मनिष्ठा में प्रमाद न करे, क्योंकि प्रमाद ही मृत्यु है (अपनी आत्मा के अनुसन्धान को छोड़कर जीवन बिताना प्रमाद है), ऐसा विद्या के ज्ञाता (विद्यावान्) ब्रह्मवादी कहते हैं।

जिस प्रकार शैवाल को पानी के ऊपर से कुछ हटा देने के बाद वह क्षण मात्र भी वहाँ नहीं ठहरती (और पूर्ववत् पानी को ढक लेती हैं), उसी प्रकार बुद्धिमान् व्यक्ति भी यदि ब्रह्मनिष्ठा से थोड़ा भी हट जाये या दूर हो जाये, तो माया उसे आवृत कर लेती है।

जिसे जीवित स्थिति में ही कैवल्यावस्था प्राप्त हो गयी हो, वह विदेह (देहरहित) होने पर केवल (ब्रह्म) ही रहेगा। इसलिए हे निष्पाप! समाधिनिष्ठ होकर निर्विकल्प (विकल्परहित ) बनो।

जिस समय निर्विकल्प समाधि से अद्वैत आत्मा का दर्शन होता है, उसी समय हृदय की अज्ञान रूपा ग्रन्थि का पूर्णरूपेण विनाश और विलय हो जाता है।

आत्मत्व अर्थात् आत्मभाव को दृढ़ करके, अहंकारादि का परित्याग करके उनसे उसी प्रकार से उदासीन रहे, जिस प्रकार बरतन वस्त्रादि के प्रति उदासीन भाव रखा जाता है।

ब्रह्मा से स्तम्ब (तृण) पर्यन्त समस्त उपाधियाँ मिथ्या हैं, इसलिए सदा एक स्वरूप में अवस्थित रहने वाले अपने पूर्ण आत्मा का ही सर्वत्र दर्शन करना चाहिए।

स्वयं ब्रह्मा, स्वयं विष्णु, स्वयं इन्द्र, स्वयं शिव, स्वयं विश्व और स्वयं ही यह सब कुछ है। स्वयं के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।

अपनी आत्मा में समस्त वस्तुओं का आभास (रस्सी में सर्प की तरह) केवल आरोपित है, उसका निराकरण (निरसन) कर देने से वह स्वतः पूर्ण, अद्वैत और अक्रिय (क्रियारहित) परब्रह्म बन जाता है।

एक ही आत्मा रूपी वस्तु में जो यह विकल्प (भेह) प्रतीत होता है, वह प्रायः मिथ्या है; क्योंकि निर्विकार, निराकार और निर्विशेष में भेद ही कहाँ है?

वह चैतन्य (आत्मा) द्रष्टा, दर्शन और दृश्य आदि भावों से शून्य है, जो निरामय (निर्दोष) तथा प्रलय-कालीन सागर की तरह परिपूर्ण है।

जिस प्रकार अन्धकार प्रकाश में विलीन हो जाता है, उसी प्रकार अद्वितीय परम तत्त्व में भ्रान्ति का कारण भी विलुप्त हो जाता है। वह आत्मा अवयव रहित है, अस्तु उसमें भेद कहाँ है?

एकात्मक परमतत्त्व में भेदकर्ता किस प्रकार रह सकता है? सुषुप्तावस्था में सुख मात्र है, उसमें भेद किसके द्वारा देखा गया है?

इस विकल्प (भेद) का मूल कारण चित है। यदि चित्त न हो, तो कोई भी विकल्प नहीं है। अतः प्रत्यग् रूप परमात्मा में अपने चित्त को सम्माधिस्थ (समाहित) कर दो।

अखण्डानन्द रूप आत्मा को अपना वास्तविक स्वरूप जानकर, सदा इस आत्मा में ही बाहर और अन्दर आनन्द रस का आस्वादन करो।

वैराग्य का फल बोध (ज्ञान) है, ज्ञान का फल उपरति (विषयों से विरत होना) है और उपरति का फल आत्मानन्द के अनुभव से प्राप्त शान्ति है।

उपर्युक्त वस्तुओं में जो उत्तरोत्तर न हो, उससे पूर्व की वस्तु निष्फल है। विषयों से निवृत्ति ही परम तृप्ति है और आत्मा का आनन्द स्वयं ही अनुपम है।

मायारूप उपाधि से युक्त, जगत् का कारणरूप सर्वज्ञत्व आदि लक्षणों से युक्त, परोक्ष रूप से शबल (अर्थात् मायावेष्टित) ब्रह्म जो सत्यादि स्वरूप वाला है, वही 'तत्' शब्द से विख्यात है।

जो 'मैं' शब्द तथा प्रत्यय का आश्रय स्वरूप प्रतीत होता है, जिसका ज्ञान अन्तःकरण से मिथ्या है, वह (जीव) 'त्वम्' शब्द से जाना जाता है।

ब्रह्म एवं जीव की क्रमशः माया और अविद्या - यह दो ऐसी उपाधियाँ हैं, जिनका परित्याग कर देने से अखण्ड सच्चिदानंद परब्रह्म ही भासित होता है (दिखाई पड़ता है)।

इस प्रकार 'तत्त्वमसि' आदि महावाक्यों द्वारा उनके (जीव और ब्रह्म के एकत्व का) अर्थ और अनुसंधान करना 'श्रवण' है और जो कुछ सुना गया है, उसके अर्थ पर युक्तिपूर्वक विचार-विमर्श करके अनुसंधान करना 'मनन' है।

श्रवण और मनन द्वारा सन्देह रहित हुए अर्थ में चित्त को स्थापित करके एकतानत्व प्राप्त करना यह 'निदिध्यासन' है। (धान का ऊँचा नीचा, पैना या भारी होना उसके दोलन (फ्रीकेंसी) पर निर्भर करता है। समान दोलन वाले साज जब साथ बजते हैं, तो उसके स्वर एक दूसरे में घुल-मिल जाते हैं। इसे ध्वनि दोलन का सुसंयोग (रेजोनेन्स ऑफ फ्रीकेंसी) कहते हैं। एकतानत्व का अर्थ यहाँ भावात्मक सुसंयोग (रैजोनेन्स) जैसा कुछ होना चाहिए)

इसके पश्चात् ध्याता और ध्यान का परित्याग करके ध्येय में ही चित्त को स्थापित करें। वायुरहित स्थान में रखे दीपक की तरह जब चित्त निश्चल बन जाए, यही समाधि है।

समाधि की अवस्था में वृत्तियाँ केवल आत्मगोचर होती है, इसके कारण प्रतीत नहीं होती; किन्तु समाधि में से उठे हुए साधक की उन उन्नत वृत्तियों का स्मरण द्वारा अनुमान लगाया जाता है।

इस अनादि जगत् में करोड़ों कर्म एकत्र हो जाते हैं, किन्तु समाधि के द्वारा उनका विलय हो जाता है और शुद्ध धर्म की वृद्धि होती है।

उत्तम कोटि के योगवेत्ता इस समाधि को 'धर्ममेघ' कहते हैं, क्योंकि वह मेघ के समान ही धर्मामृत रूप सहस्रों धाराओं की वर्षा करती है।

(जब) इस समाधि के द्वारा वासना का जाल पूर्णरूपेण लय को प्राप्त हो जाता है एवं जब पुण्य-पाप नामवाला कर्मसमूह समूल रूप से विनष्ट हो जाता है,

तब (तत्त्वमसि आदि) वाक्यों के माध्यम से पहले परोक्ष ज्ञान प्रतिभासित होता है और बाद में (वह) हस्तामलकवत् अपरोक्ष बोध (तत्त्वज्ञान) को प्रकट करता है।

(जब) भोगने योग्य पदार्थ की उपस्थिति में भी वासना उदित न हो, तब वैराग्य की स्थिति जान लेनी चाहिए और जब अहं भाव के उदय का अभाव हो जाए अर्थात् जब वैसी (अहंकार होने योग्य) परिस्थिति बन जाने पर भी अहं न आये, तब ज्ञान की परम स्थिति जाननी चाहिए।

लीन वृत्तियाँ पुनः उदित न हों, तो वह उपरति की स्थिति समझनी चाहिए। इस स्थिति वाला यति 'स्थितप्रज्ञ' कहलाता है, जो सदा आनन्दानुभूति करता रहता है।

जिसका आत्मतत्त्व एकमात्र ब्रह्म में ही विलीन हुआ हो, वह निर्विकार और निष्क्रिय हो जाता है। ब्रह्म और आत्मा के एकत्व के अनुसंधान में लोन हुई वृत्ति,

जब विकल्प रहित (ऊहापोह रहित) और मात्र चैतन्य रूप बन जाती है, तब उसे प्रज्ञा कहते हैं। वह (प्रज्ञा) जिसमें सर्वदा विद्यमान रहती है, वह 'जीवन्मुक्त' कहलाता है।

शरीर और इन्द्रियों में जिसका अहं भाव न हो तथा इनके अतिरिक्त अन्य पदार्थों पर भी जिसका ममत्व न हो, वह जीवन्मुक्त कहलाता है।

न जो जीव और ब्रह्म में तथा ब्रह्म और सूर्य में भेद बुद्धि नहीं रखता, वह जीवन्मुक्त कहलाता है।

सज्जनों द्वारा पूजे जाने पर और दुर्जनों द्वारा ताड़ित किये जाने पर भी जिसमें समभाव बना रहे, वह जीवन्मुक्त कहलाता है।

जिसके द्वारा ब्रह्म तत्त्व जान लिया गया है, संसार के प्रति उसकी दृष्टि पूर्ववत् नहीं रहती। इसलिए यदि वह संसार को पूर्व के समान ही देखता है, तो यह जानना चाहिए कि वह अभी तक ब्रह्म भाव को समझा नहीं है और बहिर्मुख है।

जब तक सुख आदि का अनुभव होता है, तब तक इसे प्रारब्ध भोग मानना चाहिए, क्योंकि कोई भी फल पूर्व में क्रिया करने के कारण ही उदित होता है। बिना क्रिया के कोई फल नहीं मिलता।

जिस प्रकार जाग्रत हो जाने पर स्वप्र रूप कर्म विनष्ट हो जाता है, उसी प्रकार 'मैं ब्रह्म हूँ' ऐसा ज्ञान हो जाने पर करोड़ों कल्पों से अर्जित (संचित) कर्म विलीन (नष्ट हो जाते हैं।

योगी आकाश के सदृश अपने को असङ्ग और उदासीन जानकर भावी कर्मों में किञ्चित् भी लिप्त नहीं होता।

जिस प्रकार सुरा कुम्भ में स्थित आकाश, सुरा की गन्ध से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार शरीर रूपी उपाधि के साथ संयुक्त रहने पर भी आत्मा उसके गुण-धर्मों से प्रभावित नहीं होता।

जिस प्रकार छोड़ा हुआ बाण निर्धारित लक्ष्य को बेधता ही है, उसी प्रकार ज्ञानोदय होने से पूर्व (अज्ञान की स्थिति में) किये गये कर्म का फल अवश्य मिलता है अर्थात् ज्ञान उत्पन्न हो जाने से पूर्व जो कृत्य किये गये थे, उनका फल ज्ञान उत्पन्न हो जाने से विनष्ट नहीं होता।

बाघ समझकर (उसे मारने के लिए) छोड़ा गया बाण यह जान लेने पर कि 'यह बाघ नहीं गाय है', रुकता नहीं और वेगपूर्वक लक्ष्य वेध करता हो है, उसी प्रकार ज्ञान हो जाने पर भी पूर्वकृत कर्म का फल मिलता ही है।

"मैं अजर और अमर हूँ", इस प्रकार अपने आत्मरूप को जो स्वीकार कर लेता है, वह आत्मरूप में ही स्थित रहता है, फिर उसे प्रारब्ध कर्म की कल्पना ही कैसे हो सकती है?

प्रारब्ध कर्म उसी समय सिद्ध होता है, जब देह में आत्मभाव होता है; परन्तु देह में आत्मभाव रखना इष्ट नहीं है। अस्तु देह के ऊपर आत्म बुद्धि का परित्याग करके प्रारब्ध कर्म का परित्याग करना चाहिए।

देह के प्रति भ्रान्ति ही प्राणी के प्रारब्ध की परिकल्पना है।

आरोपित अथवा भ्रान्त धारणा से जो कल्पित हो, वह सत्य कैसे हो सकता है? जो सत्य नहीं है, उसका जन्म कहाँ से हो और जिसका जन्म नहीं है, उसका विनाश कैसे हो? अस्तु जो असत् है, उसका प्रारब्ध कर्म कैसे बने?

यदि अज्ञान (देहासक्ति आदि) का पूर्ण विलय ज्ञान में हो जाये, तो फिर देह का अस्तित्व ही कैसे रह सकता है, ऐसी शंका जड़ (स्थूल) बुद्धि वाले ही करते हैं।

बहिर्मुखी दृष्टि वाले (अज्ञानियों) को समझाने के लिए श्रुति प्रारब्ध की बात कहती है। ज्ञानियों के लिए या देहादि की सत्यता प्रकट करने के लिए प्रारब्ध का उल्लेख नहीं किया गया है।

वस्तुतः परिपूर्ण, आदि-अन्तरहित, अप्रमेय, विकाररहित, सद्मन्, चिद्धन, नित्य् आनन्दयन्

अध्यय प्रत्थ, एकरस, पूर्ण अनन्त, सब ओर मुख वाला, त्याग और ग्रहण न करने वाला किसी आधार के ऊपर न रहने वाला और किसी का आश्रय भी न लेने वाला

निर्गुण, क्रियारहित, सूक्ष्म स्वरूप निर्विकल्प दोष दुर्गुण रहित, अनिरूप्य (जिसका निरूपण नहीं किया जा सकता, ऐसे स्वरूप वाला), मन और वाणी द्वारा अगोचर

सत्समृद्ध, (सतोगुण की अधिकता वाला) स्वतः सिद्ध, शुद्ध, बुद्ध, अनीदृश (जिसकी किसी के साथ तुलना न की जा सके ) - वह एक ही अद्वैत रूप ब्रह्म है, उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।

इस प्रकार अपनी अनुभूति से स्वयं ही अपनी आत्मा को अखण्डित जानकर (तु) सिद्ध हो और निर्विकल्प (विकल्प रहित) आत्मा से अपने को सुख पूर्ण स्थिति में प्रतिष्ठित कर।

(गुरु के इस उपदेश से शिष्य को ज्ञान हो गया और वह कहने लगा) जिस जगत् को अभी मैंने देखा था, वह कहाँ चला गया? किसके द्वारा वह हटा लिया गया ? वह कहाँ लीन हो गया? बहुत आश्चर्य का विषय है कि अभी तो वह मुझे दिखाई पड़ रहा था, क्या वह अब नहीं है?

अखण्ड आनन्द रूप पीयूष से पूरित ब्रह्म रूप सागर में अब मेरे लिए क्या त्याग करने योग्य है? क्या ग्रहण करने योग्य है? अन्य कुछ है भी क्या? यह कैसी विलक्षणता है?

यहाँ मैं न कुछ देखता हूँ, न सुनता हूँ और न ही कुछ जानता हूँ; क्योंकि मैं सदा आनन्द रूप से अपने आत्मतत्व में ही स्थित हूँ और स्वयं ही अपने लक्षण वाला हूँ।

मैं सङ्ग रहित हूँ, अङ्ग रहित हूँ, चिह्न रहित और स्वयं हरि हूँ। मैं प्रशान्त हूँ, अनन्त हूँ, परिपूर्ण और चिरन्तन अर्थात् प्राचीन से प्राचीन हूँ।

मैं अकर्ता हूँ, अभोक्ता हूँ, अविकारी और अव्यय हूँ। मैं शुद्ध बोधस्वरूप और केवल सदाशिव हूँ।

यह विद्या (सदाशिव) गुरु ने अपान्तरतम नामक (देवपुत्र) ब्राह्मण को दो थी। अपान्तरतम ने ब्रह्मा को दी थी। ब्रह्मा ने घोर आङ्गिरस को दी। घोर आङ्गिरस ने रैक को दी। रैक ने राम (परशुराम) को दी। राम ने समस्त प्राणियों के लिए प्रदान की। यह निर्वाण (प्राप्त करने) का अनुशासन है, वेद का अनुशासन है और वेद का आदेश है। इस प्रकार यह उपनिषद् (रहस्य विद्या) पूर्ण हुई।

इस प्रकार यह उपनिषद् (रहस्य विद्या) पूर्ण हुई।

Krishjan
Krishjan | Explore Dharma

Install the app to enjoy more features